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वि त्वदापो॒ न पर्व॑तस्य पृ॒ष्ठादु॒क्थेभि॑रिन्द्रानयन्त य॒ज्ञैः। तं त्वा॒भिः सु॑ष्टु॒तिभि॑र्वा॒जय॑न्त आ॒जिं न ज॑ग्मुर्गिर्वाहो॒ अश्वाः॑ ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi tvad āpo na parvatasya pṛṣṭhād ukthebhir indrānayanta yajñaiḥ | taṁ tvābhiḥ suṣṭutibhir vājayanta ājiṁ na jagmur girvāho aśvāḥ ||

पद पाठ

वि। त्वत्। आपः॑। न। पर्व॑तस्य। पृ॒ष्ठात्। उ॒क्थेभिः॑। इ॒न्द्र॒। अ॒न॒य॒न्त॒। य॒ज्ञैः। तम्। त्वा॒। आ॒भिः। सु॒स्तु॒तिऽभिः॑। वा॒जय॑न्तः। आ॒जिम्। न। ज॒ग्मुः॒। गि॒र्वा॒हः॒। अश्वाः॑ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:24» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) राजन् ! जो (त्वत्) आप से रक्षित हुए (पर्वतस्य) पर्वत के (पृष्ठात्) पीठ से (आपः) जल (न) जैसे वैसे (उक्थेभिः) प्रशंसा करने योग्य कर्मों के अनुष्ठानों से और (यज्ञैः) अच्छे कर्मों के अनुष्ठानों से जिन (त्वा) आपको (गिर्वाहः) वाणियों के प्राप्त करानेवाले (अश्वाः) बड़े विद्वान् जन (वि) विशेष करके (अनयन्त) पहुँचाते हैं (तम्) उन आपको (आभिः) इन प्रत्यक्ष (सुष्टुतिभिः) उत्तम स्तुतियों से (वाजयन्तः) प्रसन्न कराते हुए शूरवीर जन (आजिम्) सङ्ग्राम को (न) जैसे वैसे (जग्मुः) प्राप्त होवें ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे पर्वत के ऊपर वर्त्तमान जल शीघ्र जाकर जलाशय को प्राप्त होता है, वैसे जो आपकी प्रजाओं के हित के चाहनेवाले जन आपको प्राप्त होते हैं, उनके सहित ही आप सदा उन्नत हूजिये ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! ये त्वद्रक्षिताः पर्वतस्य पृष्ठादापो नोक्थेभिर्यज्ञैर्यं त्वा गिर्वाहोऽश्वा व्यनयन्त तं त्वामाभिस्सुष्टुतिभिर्वाजयन्तः शूरा आजिन्न जग्मुः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) विशेषे (त्वत्) (आपः) जलानि (न) इव (पर्वतस्य) शैलस्य (पृष्ठात्) (उक्थेभिः) प्रशंसनीयैः कर्मभिः (इन्द्र) राजन् (अनयन्त) नयन्ति (यज्ञैः) सत्कर्मानुष्ठानैः (तम्) (त्वा) त्वाम् (आभिः) प्रत्यक्षाभिः (सुष्टुतिभिः) (वाजयन्तः) हर्षयन्तः (आजिम्) सङ्ग्रामम् (न) इव (जग्मुः) गच्छेयुः (गिर्वाहः) ये गिरो वहन्ति प्रापयन्ति ते (अश्वाः) महान्तो विद्वांसः। अश्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०१.१४) ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे राजन् ! यथा पर्वतोपरिष्टाज्जलं सद्यो गत्वा जलाशयं प्राप्नोति तथा ये भवत्प्रजाहितैषिणो भवन्तं प्राप्नुवन्ति तैस्सहित एव सदोन्नतो भवेः ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! जसे पर्वतावरील जल तात्काळ खालच्या जलाशयाला मिळते तसे तुझ्याजवळ प्रजेचे हितकर्ते आहेत त्यांच्यासह तू सदैव उन्नत हो. ॥ ६ ॥